सबरीमाला मंदिर विवाद : यतो धर्म, ततो जय:
10 से 50 वर्ष तक की महिलाओं का सबरीमाला मंदिर में प्रवेश प्रतिबंधित
करना उसी प्रकार से अन्यायपूर्ण है, जिस
प्रकार चर्च में किसी स्त्री पादरी का नहीं होना, विधवाओं को सबसे अलग किसी आश्रय स्थल में रखा जाना और महिलाओं को
मस्जिद में प्रवेश न करने देना गलत है। नैतिकता के दृष्टिकोण से देखे जाने पर, कोई भी सही सोच वाला व्यक्ति इसे दावे से गलत कह सकता है।
किसी देश
के न्यायालय,
समाज के नैतिक पहरेदार नहीं
हैं। उनसे तो संविधान के आधार पर मूलभूत प्रश्नों को विवेकपूर्ण तरीके से निर्धरित
करने की अपेक्षा की जाती है। सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध के
प्रश्न को अगर संवैधानिक दृष्टि से देखा जाए, तो यह
किसी व्यक्ति के पूजा-पाठ संबंधी अधिकार और किसी समुदाय के धार्मिक नियम बनाने के
विवाद के बीच फंसा हुआ दिखाई देता है।
न्यायविदों
ने इस पर अपना निर्णय सुनाते हुए बड़ी चतुराई से प्रश्न के समाधान के संतुलन पर
किनारा कर लिया। परन्तु उन्होंने भगवान अयप्पा के भक्तों को एक अलग ‘धार्मिक संज्ञा या संप्रदाय’ न मानकर इस समूह के अस्तित्व को ही एक प्रकार से नकार दिया। ऐसा
करके उन्होंने इस समूह के भक्तों को अपने नियम बनाने के अधिकार से ही वंचित कर
दिया। इस प्रकार न्यायालय का यह निर्णय दो बिन्दुओं पर त्रुटिपूर्ण लगता है। (1) इस निर्णय में संविधान के उस मूल पाठ को नजर अंदाज कर दिया
गया, जिसमें यह अधिकार न केवल धार्मिक
संप्रदायों बल्कि वर्गों को भी दिया गया है। संविधान द्वारा धार्मिक समूहों के
अधिकार की रक्षा के लिए दिया गया यह कवच, विवाद
योग्य नहीं है।
(2) अगर किसी
धार्मिक संप्रदाय के निर्धारण के परीक्षण के लिए न्यायालय हठधर्मिता से निर्णय ले, (जैसा कि सबरीमाला के मामले में लिया है) तो इसका अर्थ है कि
न्यायालय ने हिन्दू धर्म के उस बंजर रूप को आधार बनाया है, जिसका हिन्दू धर्म ग्रंथों में कोई खास उल्लेख नहीं मिलता
है। हिन्दू शास्त्रों में अन्य धर्मों के बहिष्कार या मोक्ष के लिए हठधर्मी
मार्गों के अनुसरण को प्रतिकूल माना गया है। संवैधानिक सिद्धांत भी शून्य में से
नहीं उपजे हैं। अतः उन्हें रूढ़िवादी तरीके से नहीं लिया जा सकता।
न्यायमूर्ति
चंद्रचूड़ का दृष्टिकोण है कि, ‘‘जिस
आधारभूत विश्वास पर संविधान खड़ा है, उसका
आधार प्रत्येक व्यक्ति की उस गरिमा में है, जिसमें
खुशी को ढूंढा जाता है।’’ यदि हम
दार्शनिक स्तर पर, किसी की
व्यक्तिगत खुशी का पीछा करने की बात करें, तो इसे
हमारे संविधान के लिए एक संयोग से बना उद्देश्य माना जा सकता है, क्योंकि संविधान निर्माताओं के लेखों, सिद्धांतों या वाद-विवादों में इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं
मिलता है। हमारी दार्शनिक परंपरा तो ‘वसुधैव
कुटुम्बकम्’
की भावना के लिए व्यक्ति के
विघटन को श्रेयस्कर मानती चली आई हैं। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ द्वारा जेफरसन की इस
उक्ति को भारतीय संविधान पर लागू करना गले नहीं उतरता।
हमारे
संविधान के स्वतंत्रता एवं समानता समान रूप से महत्वपूर्ण उद्देश्यों की सेवा करते
हैं। इसी प्रकार,
संविधान में लोगों के कर्तव्यों
और सबके भले के लिए संसाधनों का समान वितरण करने की देश की जिम्मेदारी का भी वर्णन
किया गया है। अतः संविधान के विस्तार को ‘व्यक्ति
की गरिमा’ तक सीमित कर देना, उसको परिभाषित करने के तरीके को संकुचित कर देना है। हमारा
संविधान भारत के प्राकृतिक बहुलवाद का प्रत्यक्ष दर्पण है। इसमें एक अपेक्षाकृत
समान समाज के निर्माण एवं सरकार के आदेशों को रोकने के लिए एक विवेकपूर्ण
व्यावहारिक मूल्यांकन के तत्व हैं। ये सभी उद्देश्य तभी संभव होंगे, जब धर्म का शासन होगा। जहाँ धर्म होगा, वहीं जय होगी। हमारे संविधान की स्थापना इसी विश्वास पर हुई
है।
हमारे
देश के नैतिक प्रश्नों के संदर्भ में, विदेशी
सिद्धांतों का उल्लेख किया जाना न्यायोचित नहीं लगता। यह अलग बात है कि न्यायालय
सही बिन्दु पर पहुँचा या नहीं। न्यायालय की संस्थागत वैधता उन लोगों के द्वारा
विरोध का सैलाब खड़ा कर सकती है। जो सोचते हैं कि न्यायालय ले तथ्यों पर गलती की
है। अतः न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह न केवल आस्थापूर्वक संविधान की व्याख्या
करे, बल्कि देश के लोगों के लिए भी इसकी
विवेचना करे। ऐसा न करने पर दूरगामी क्षति हो सकती है।
सबरीमाला का मंदिर दक्षिण भारत के सबसे दुर्गम मंदिरों में से एक है, फिर भी यह हर साल तीन से चार मिलियन तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है। सबरीमाला जाने के लिए पहाड़ के जंगलों के माध्यम से बहु-दिन की शुरुआत करने से पहले, तीर्थयात्री 41 दिनों के कठोर उपवास, ब्रह्मचर्य, ध्यान और प्रार्थना के साथ खुद को तैयार करते हैं।
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